9 साल पहले उर्स में बिछुड़ा यूपी के परिवार का दिव्यांग बच्चा, 17 साल का होने पर पिता से मिला तो छलक पड़े आंसू






9 साल का इंतजार। हर दिन परिवार को ढूंढ़ती आंखें। न कुछ कह पाता और न सुन पाता, लेकिन चेहरा और खामोशी सब बयां कर जाते। अब जब पिता को देखा तो ऐसा लगा कि जैसे जन्नत मिल गई। जिंदगी का अधूरापन खत्म हो गया। दिल का दर्द खुशी के आंसू के दरिया के रूप में बह निकला। यही कहानी है उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद के एक मुस्लिम परिवार के अब्दुल की। वह 8 साल का था, जब करीब 600 किलोमीटर दूर पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में यह परिवार से अलग हो गया था। 


बोलने और सुनने में अक्षम होने की वजह से इसके परिवार तक पहुंचाना बड़ा मुश्किल काम था। यह काम किस तरह से फेसबुक ने आसान कर दिया, जानने के लिए पढ़ें पूरी कहानी दैनिक भास्कर के साथ...


उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद के जरदोजी कारीगर ताहिद अली का बेटा अब्दुल लतीफ वर्ष 2011 में अपने चाचा के साथ पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में लगे उर्स में आया था। भीड़ में चाचा का हाथ छूट गया तो रास्ता भटक गया। इसके बाद उसे सरहिंद के जमींदार गुरनाम सिंह ने देखा और बात करनी चाही तो पता चला बच्चा बोल और सुन नहीं सकता। घर ले जाने के बाद भी बहुत पूछने पर अब्दुल ने अपना नाम अब्दुल और मां का नाम सलमा लिखा तो उन्हें बच्चे के धर्म का पता चला। इसके बाद आसपास के मुस्लिम समुदाय से पड़ताल भी की, लेकिन अब्दुल के परिवार के बारे में कुछ पता नहीं चला। 


गुरनाम सिंह ने अब्दुल को कुछ समय अपने पास रखने के बाद पटियाला के स्पेशल स्कूल में दाखिला करवा दिया। वहीं हॉस्टल में अब्दुल रहने लगा। छुट्टियों में गुरनाम सिंह का परिवार उससे मिलने जाता और अपने सभी कार्यक्रमों में उसे घर पर भी बुलाता। अब्दुल दसवीं भी पास कर गया। कोरोना की महामारी के दौर में बाकी सभी बच्चे घर चले गए, लेकिन अब्दुल हॉस्टल में ही रहा।


स्कूल संचालक कर्नल करमिंदर सिंह ने उसकी कंप्यूटर शिक्षा शुरू की थी। इसी बीच अब्दुल लतीफ ने फेसबुक चलाना शुरू किया। लॉकडाउन के दौरान फेसबुक पर बचपन के उसके साथी रूपेश यादव ने उसकी फोटो देख उसे पहचान लिया। कई बरस साथ पढ़ा रूपेश यादव भी बोल व सुन नहीं सकता, लेकिन फेसबुक पर चैटिंग के दौरान अब्दुल ने रूपेश से अपने मां-बाप के बारे में पूछा। उसने बताया कि वह फर्रुखाबाद के गांव सोता बहादुरपुर के रहने वाले जरदोजी कारीगर ताहिद अली का बेटा है।


रूपेश ताहिद के पास गया और उन्हें अब्दुल की फोटो दिखाई। ताहिद और उनकी पत्नी सलमा ने अपने लाडले को फटाक से पहचान लिया। इसी बीच उनकी स्कूल के संचालक से बात हुई, जिन्होंने गुरनाम सिंह से भी बात की। लॉकडाउन के वजह से ताहिद एकदम उसे लेने नहीं आ सके।


गुरुवार को अब्दुल की जिंदगी का इंतजार और अंदर का अधूरापन खत्म हो गया। उधर, फर्रुखाबाद में भी अब्दुल के घर में खुशियां लौट आई हैं। नौ साल से गुमसुम उसकी मां सलमा बेटे के लौटने की बाट में दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठी हैं। अब्दुल के अलावा उनके पांच बेटे व एक बेटी है।


छोड़ दी थी बेटे के पाने की आस
ताहिद अली ने बताया कि वह तो बेटे के मिलने की आस छोड़ ही चुके थे। दो दिन पहले ही पता चला कि बेटा पंजाब में ही है, तभी से वह उसे मिलने के लिए बेचैन थे। बेटे की अच्छी परवरिश के लिए वह स्कूल प्रबंधन और गुरनाम सिंह के शुक्रगुजार हैं। ये सब लोग उनके लिए किसी भगवान से कम नहीं हैं।


कभी धार्मिक बंधन में नहीं बांधा: गुरनाम सिंह
दूसरी ओर गुरनाम सिंह का कहना है कि उन्होंने बीते नौ साल में कभी भी अब्दुल लतीफ पर धर्म की पाबंदी नहीं लगाई। वह चाहे नमाज अदा करे या ईद मनाए, उसे पूरी आजादी और हर सुविधा दी गई। अब अब्दुल को उसका परिवार मिल गया, इससे बड़ी खुशी उनके लिए और कोई नहीं। अब्दुल अगर पटियाला रहकर पढ़ाई करना चाहता है तो वह आगे भी मदद के लिए तैयार रहेंगे।


होनहार छात्र है अब्दुल: स्कूल प्रबंधक
स्कूल के प्रबंधक व सोसायटी फॉर वेलफेयर हैंडीकैप्ड के सचिव कर्नल करमिंदर सिंह ने कहा कि अब्दुल स्कूल का होनहार छात्र है। तभी तो उसने फेसबुक से अपने परिवार को खोज निकाला। पंजाबी यूनिवर्सिटी की रिसर्च स्कॉलर डॉ. मिनी सिंह का भी अब्दुल की परवरिश में योगदान है, क्योंकि वह पिछले तीन साल से उसकी पढ़ाई के लिए स्पॉन्सर कर रही हैं। आज वह भी बोल उठीं, 'अब्दुल तेज दिमाग है। यही वजह है कि उसे उसका परिवार मिल गया। मुझे आज बहुत संतुष्टि मिली है।'


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