क्रिकेट इतिहास के महानतम कप्तानों में से एक होने के बावजूद महेंद्र सिंह धोनी (MS Dhoni) अपने अंतरराष्ट्रीय करियर के दौरान कभी भी अपनी कप्तानी की आलोचनाओं से पूरी तरह से परे नहीं थे. आईपीएल में चेन्नई सुपर किंग्स (Chennai Super Kings) को सबसे ज़्यादा मौके पर फाइनल में ले जाने और 3 बार ट्रॉफी जिताने के बावजूद भी उनकी कप्तानी की आलोचना कभी कम नहीं हुई. वक्त आ गया है कि एक संपूर्ण लीडर की मिथ्या को खत्म किया जाए. टॉप पर बैठा एक त्रुटिहीन शख्स जिसे सब पता हो. हकीकत तो ये है कि अगर लीडर जितनी जल्दी खुद को हर लोगों के सामने हर बात के लिए सर्वेसर्वा मानना छोड़ दे तो संस्थान के लिए बेहतर है.
शायद मौजूदा वक्त में धोनी की कप्तानी को लेकर ये बात सौ फीसदी सही लगती है. महान से महान कप्तान के करियर में एक वक्त ऐसा आता है जब वो भी परेशान होता है. उसे भी मदद की ज़रुरत होती है. क्रिकेट इतिहास में कप्तानी को लेकर इंग्लैंड के पूर्व कप्तान माइक ब्रेयरली की The Art of Captaincy से बेहतर किताब नहीं है. “ मेरे साथ ऐसे दौर भी आए, जहां मैं खुद को मोटिवेट नहीं कर सकता था, दूसरों की तो बात ही छोडि़ये. मैं तो सिर्फ यही चाहता कि गुमनामी में रेंगन लगूं की बजाय वापसी करूं”. टेस्ट क्रिकेट के महान कप्तानों में से एक ब्रेयरली की ये बातें दिखाती हैं कि कप्तानी कितनी मुश्किल चुनौती होती है और ये न भूले कि ब्रेयरली को न तो तीनों फॉर्मेंट में कप्तानी का अनुभव था और न ही आईपीएल का. धोनी के साथ क्या गुजरती होगी, शायद वो भी ठीक से नहीं जान पाते होंगे.
मौजूदा सीजन में धोनी अपनी कप्तानी (आईपीएल में) करियर के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं. अगर उनके पुराने साथी वीरेंद्र सहवाग ने ये कहकर आलोचना की धोनी जिताने के लिए प्रयास ही नहीं कर रहे हैं तो इरफान पठान और हरभजन सिंह जैसे पुराने साथियों ने शायद माही का नाम लिए बगैर उनकी बढ़ती उम्र और गिरते स्तर की तरफ इशारा भी किया है, लेकिन ऐसा नहीं है कि धोनी या उनके साथी इस तरह की बातों या आलोचना से वाकिफ नहीं हैं. आईपीएल 2020 शुरू होने से पहले चेन्नई के एक बड़े मैच विनर ड्वेन ब्रावो ने कहा था कि खुद धोनी भी भविष्य के कप्तान को लेकर अपनी राय बना चुके हैं. ब्रावो के मुताबिक हर किसी को कभी न कभी कप्तानी छोड़नी ही पड़ती है और सवाल सिर्फ ये होता है कि ऐसा कब करें. ऐसे में चेन्नई जिसने इस साल इतनी खराब शुरुआत की है उससे धोनी पर बतौर बल्लेबाज और कप्तान को लेकर काफी तीखे सवाल उठ रहे हैं.
अपनी मौत से ठीक कुछ दिन पहले ऑस्ट्रेलियाई कमेंटेटर डीन जोंस ने कहा था कि धोनी कई मामलों में कप्तान के तौर पर पुराने ख्याल वाले लगते है. वो आपकी गलतियों का इंतज़ार करते हैं और जैसे ही मौका पाते है वो कोबरा की तरह झपट पड़ते हैं, लेकिन अफसोस की बात है कि पहले मैच में जीत के बाद धोनी पर विरोधी टीमों ने कोबरा की तरह आक्रमण किया है.
पूर्व खिलाड़ी संजय मांजरेकर ने कुछ दिन पहले एक दिलचस्प बात धोनी के संदर्भ में कही. उनका मानना है कि अब धोनी बल्लेबाज की बजाए धोनी कप्तान के तौर पर चेन्नई के लिए बड़ा किरदार निभाएंगे. लेकिन मांजरेकर के पुराने साथी जो धोनी की कप्तानी के यूं तो बड़े फैन है, लेकिन धोनी इस नई शैली यानि की लीडिंग फ्रॉम द फ्रंट की बजाए लीडिंग फ्रॉम द बैक की पॉलिसी से इत्तेफाक नहीं रखते हैं. जडेजा ने कहा कि कोई भी युद्ध पीछे हटकर नहीं जीता जाता है. उनका कहना है कि सेना में जब जनरल पीछे हटता है तो ये युद्ध के खत्म होने का संकेत होता है. टीम इंडिया के पूर्व कप्तान गौतम गंभीर तो वैसे भी धोनी की कप्तानी के कभी भी बहुत बड़े फैन नहीं रहें हैं, लेकिन 7वें नंबर पर बल्लेबाजी के फैसले से वो धोनी की रणनीति पर काफी बरसे. गंभीर का कहना था लीडिंग फ्रॉम द फ्रंट वाली बात कहां है. गंभीर तो यहां तक कह गए कि अगर कोई दूसरे कप्तान ने ऐसा फैसला लिया होता तो उन्हें आलचोनाओं से उड़ा दिया जाता, लेकिन धोनी के मामले में ये बात आसानी से भूला दी जाती है. केविन पीटरसन ने भी धोनी के फैसले को नॉनसेंस बता डाला.
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि धोनी की इस नई कप्तानी शैली का कोई प्रशंसक नहीं है. भारत में इस कॉन्सेप्ट को समझने में थोड़ी मुश्किल होती है, लेकिन पूर्व ओपनर आकाश चोपड़ा ने कहा कि धोनी तो हमेशा से ही लीडिंग फ्रॉम द फ्रंट वाली थ्योरी से इत्तेफाक नहीं रखतें हैं. उन्होंने खुद को हमेशा पीछे रहकर ही ऐसे खिलाड़ियों को हमेशा आगे बढ़ाया, जो उनके लिए मैच जिता सकते थे. अगर धोनी को लगता है कि वो नहीं जीता सकते हैं तो उनमें ये गुण है कि वो इसको स्वीकार करते हैं और बल्लेबाज के तौर पर अपने अहम को टीम हित के आगे नहीं आने देते हैं.
धोनी वैसे को ज्ञान की बातें न तो सुनने में यकीन रखते हैं और न ही पढने में, लेकिन अगर उनके लिए बिना मांगे इस वक्त कोई सलाह दी जा सकती है तो हावर्ड बिजनेस रिव्यू के उसी अध्याय से जहां ये कहा गया है कि परफेक्टक्ट लीडर की मिथ्या को उस मायूस लीडर के लिए ही नहीं बल्कि संस्था के लिए भी जरुरी है कि खत्म किया जाए. महान से महान लीडर को दूसरों से मदद की ज़रुरत पड़ती है. वक्त आ गया है कि हम लोग असंपूर्ण लीडर का जश्न मनाए जो मानवीय हो.
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