हर बारह साल बाद आयोजित होने वाले कुंभ मेले की अद्भुत कहानी

कुंभ मेले का सीधा सम्बन्ध अमृत कलश से है। इसकी परम्परा बहुत प्राचीन है। यह आयोजन भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। इसके पीछे अमर होने के लिए ’अमृत’ हासिल करने के लिए देवताओं और राक्षसों के मिलकर किए गए प्रयास से समुद्र का मंथन किए जाने की कहानी है।

समुद्र मंथन के बाद क्षीर सागर से विष, वरुणी आदि सहित कुल 13 रत्नों की प्राप्ति के बाद देवश्री धन्वन्तरि अमृत से भरे हुए कलश को लेकर प्रकट हुए। इसी कलश यानी कुंभ को हासिल करने के लिए उनके बीच छीना-झपटी होने लगी। लेकिन, देवताओं का इशारा पाकर इन्द्र के पुत्र जयंत उस कुंभ को लेकर भाग निकले। राक्षसों के आचार्य शुक्राचार्य के आदेश पर दानव उस कुंभ को छीनने के लिए इंद्रपुत्र जयंत के पीछे-पीछे भागे। यह देखकर अमृत के कलश की रक्षा के लिए दूसरे देवता भी दौड़ पड़े।

इस अफरातफरी में चन्द्र देवता ने उस कलश को छलकने और लुढ़कने से बचाया, सूर्य भगवान ने टूटने से तथा गुरु बृहस्पति ने इस कुंभ को राक्षसों के हाथ में जाने से बचायायह भागमभाग बारह दैव दिन यानी मनुष्यों के बारह वर्ष तक चलती रही।

इस बीच, जयंत ने अमृत कलश को बारह विभिन्न स्थानों पर रखा जिनमें आठ स्थान स्वर्ग में और चार भारतवर्ष में मौजूद हैं।

माना जाता है कि कुंभ मेले का आयोजन इस कलश के रक्षक बृहस्पति, सूर्य व चन्द्र के ज्योतिषीय ग्रह राशि योग के अनुसार ही होता है अर्थात जिस समय गुरु, चन्द्र व सूर्य नक्षत्र एक विशिष्ट राशि पर अवस्थित होते हैं तभी कुंभ से अमृत छलकने वाले इन चार स्थानों हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक तथा उज्जैन में कुम्भ मेले का आयोजन प्रति 12 साल बाद होता है।

साथ ही, यह भी एक तथ्य है कि चारों कुंभों से पूर्व कृष्ण धाम वृन्दावन में एक लघु कुंभ का आयोजन होता है। मुख्य कुंभ से पहले सन्त यहां आकर भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली को नमन करके यहां से ही हरिद्वार कुंभ को प्रस्थान करते हैं।।

Post a Comment

0 Comments