हम ब्रिटेन से वह 14 लाख करोड़ रुपया क्यों नहीं मांगते जो विश्व युद्ध के समय उसने हमसे लिया था!


कुछ समय पहले भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) ने बताया कि कोहिनूर हीरे को लाहौर (उस वक़्त पंजाब रियासत की राजधानी) के महाराजा दिलीप सिंह ने ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को समर्पित किया था. उसके मुताबिक 1849 में लॉर्ड डलहौजी और लाहौर के महाराजा दिलीप सिंह के बीच एक संधि हुई थी. इसे लाहौर संधि कहा जाता है. इसी संधि के तहत लाहौर के महाराजा ने महारानी विक्टोरिया को कोहिनूर हीरा समर्पित किया था. इससे पहले केंद्र सरकार ने ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के वंशजों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को कोहिनूर उपहार में दिया था. सरकार के मुताबिक उसे न तो जबरन छीना गया था और न ही चुराया गया था.


इस बेशकीमती हीरे को भारत लाने की चर्चा और उसे लेकर कवायदें समय-समय पर चलती ही रहती हैं. एक बड़ा वर्ग मानता है कि कोहिनूर भारत की विरासत है और ब्रिटेन को इसे वापस करना चाहिए. लेकिन कोहिनूर कर्ज के उस विशाल आंकड़े के आगे कुछ नहीं जो ब्रिटेन ने भारत को वापस नहीं किया.


साल 2015 में दूसरे विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की विजय की 70वीं जयंती मनाई गई थी. अमेरिका जैसे कई देशों के बहिष्कार के बीच मॉस्को में हुए इस आयोजन में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी मौजूद थे. रूस पर इस युद्ध की मार सबसे ज्यादा पड़ी थी. दुनिया भर में चली इस लड़ाई में कुल मिला कर जो छह करोड़ लोग मरे थे, उनमें से दो करोड़ तत्कालीन सोवियत संघ के सैनिक व निवासी थे.


दूसरे विश्व युद्ध की मार भारत पर भी कम नहीं पड़ी थी. आंकड़े बताते हैं कि करीब 25 लाख भारतीय सैनिकों ने इसमें हिस्सा लिया था. लड़ाई के दौरान इनमें 24 हजार से भी ज्यादा मारे गए. घायल या लापता होने वालों की संख्या इससे करीब तिगुनी थी. लड़ाई का खर्च गुलाम भारत के करदाताओं ने भी उठाया. आज के हिसाब से देखा जाए तो भारत ने ब्रितानी हुकूमत को जो रकम लडाई के लिए दी थी, वह आज 150 अरब डॉलर (करीब नौ लाख 75 हजार करोड़ रुपये) से कम नहीं होगी. लेकिन न तो भारत ने कभी उससे यह उधार वापस मांगा, न ही ब्रिटेन ने कभी इसकी कोई चर्चा की.


जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ़ हिटलर ने एक सितंबर 1939 की सुबह पौने पांच बजे पोलैंड पर अकारण हमला कर जब द्वितीय विश्वयुद्ध छेड़ा था, तब भारत अंग्रेज़ों का उपनिवेश था. भारत का इस युद्ध से कुछ लेना-देना नहीं था. तब भी उसे बहुत कुछ देना पड़ गया. दो ही दिन बाद तीन सितंबर को दिन में 11 बजे ब्रिटेन ने और पांच बजे फ्रांस ने भी जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी. दोनों देश पोलैंड की स्वाधीनता के संरक्षक थे. इसी दिन भारत की ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार की ओर से वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग के नेताओं और देश की जनता को बताया कि भारत भी जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की स्थिति में है, उसे ब्रिटेन के हाथ मज़बूत करने होंगे.


जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी ने भारत पर थोपी गई इस एकतरफा युद्ध-घोषणा का ज़ोरदार विरोध किया. उनका कहना था कि ब्रिटेन यदि भारतीय जनता का समर्थन चाहता है तो उसे पहले बताना होगा कि युद्ध खत्म होने के बाद भारत के प्रति उसके ‘लक्ष्य और आदर्श’ क्या होंगे. दरअसल ब्रिटिश सरकार प्रथम विश्व युद्ध के समय भी स्वतंत्रता का प्रलोभन देकर भारत को युद्ध में घसीट चुकी थी. कांग्रेस के नेता फिर किसी झांसे में नहीं आना चाहते थे.


25 लाख भारतीय ब्रिटेन के लिये लड़े


ब्रिटेन का साथ नहीं देने की नेहरू-गांधी की नीति और 1942 में महात्मा गांधी के ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ आंदोलन के बावजूद भारत के 25 लाख से अधिक लोग ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर द्वितीय विश्व युद्ध के एशियाई, यूरोपीय और अफ्रीकी मोर्चों पर लड़े. 30 अप्रैल 1945 को हिटलर द्वारा बर्लिन के अपने बंकर में आत्महत्या कर लेने के एक ही सप्ताह बाद आठ मई को जर्मन सेना ‘वेयरमाख़्त’ के तीन उच्च कमांडरों ने बिना शर्त आत्मसमर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए. इसके साथ ही यूरोप में युद्ध का अंत हो गया. लेकिन एशिया में लड़ाई तब तक चलती रही जब तक छह अगस्त 1945 को हिरोशिमा और नौ अगस्त को नागासाकी पर गिरे अमेरिकी परमाणु बमों ने जापान को तीन सितंबर 1945 के दिन विधिवत आत्मसमर्पण करने पर विवश नहीं कर दिया.


यह युद्ध तब तक 24,348 भारतीय सैनिकों के प्राणों की भी बलि ले चुका था. 64,354 घायल हुए और 11,754 का कोई पता नहीं चला. जापान में रासबिहारी बोस, जर्मनी में नेताजी सुभाषचंद्र बोस और मलाया-सिंगापुर में कैप्टन मोहन सिंह ने ब्रिटिश सेना से पलायन करने वालों या जापानियों और जर्मनों द्वारा युद्धबंदी बनाये गये भारतीय सैनिकों को मिला कर लगभग 40 हज़ार सैनिकों की एक ‘आज़ाद हिंद फ़ौज़’ बनाई थी. यह फौज ही नेताजी बोस के नेतृत्व में अंग्रेज़ों से लड़ते हुए भारत की पूर्वी सीमा तक पहुंच गयी थी. ये फ़ौज़ी तब तक लड़ते रहे, जब तक जापान ने अमेरिकी परमाणु बमों की मार से हार कर घुटने नहीं टेक दिये.


ख़र्च भारत के मत्थे


1914 से 1918 तक चले प्रथम विश्वयुद्ध की तरह दूसरे विश्वयुद्ध के समय भी भारतीय सैनिकों की संख्या सभी मित्र राष्ट्रों के सैनिकों के बीच सबसे अधिक थी. इस बार भी इन सैनिकों के खाने-पीने, अस्त्र-शस्त्र और लड़ने का सारा ख़र्च गुलाम भारत के करदाताओं को उठाना पड़ा. उस समय ब्रिटिश मुद्रा पाउन्ड-स्टर्लिंग के कुल भंडार का एक-तिहाई भारत के पास हुआ करता था. ब्रिटेन की सरकार ने उसमें से जो धन निकाला या उधार लिया, उसे कभी नहीं लौटाया. स्वतंत्र भारत की सरकारें इतनी दानवीर निकलीं कि उन्होंने इस पैसे का न कभी हिसाब-किताब मांगा और न ही कभी इसे लौटाने की बात की. ब्रिटिश अखबार द टेलीग्राफ में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि युद्ध का अंत होते-होते ब्रिटेन पर कुल तीन अरब पाउंड-स्टर्लिंग का जो कर्ज चढ़ गया था उसमें 1.24 अरब भारत से आया था. आज के हिसाब से देखा जाए तो यह आंकड़ा 150 अरब डॉलर यानी 14 लाख करोड़ से कम नहीं होगा.


इस प्रसंग में इस समय कर्ज के बोझ से कराह रहे यूनान (ग्रीस) का उदाहरण लिया जा सकता है. उसका जर्मनी के साथ एक प्रमुख झगड़ा यह है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जर्मनी ने यूनान पर क़ब्ज़ा करके वहां के राष्ट्रीय बैंक से ज़बरदस्ती जो उधार लिया था, उसे आज तक लौटाया नहीं. इस उधार और युद्ध के कारण हुए नुकसान को यूनानी वित्त मंत्रालय आज 279 अरब यूरो के बराबर बताता है. जबकि यूनान पर आज जो बाहरी कर्ज है, वह कुल मिलाकर 240 अरब यूरो के बराबर है. दूसरे शब्दों में, जर्मनी यदि वह क्षतिपूर्ति कर दे तो यूनान अपने सारे ऋणभार से मुक्त हो जाये. भारत में विदेशी बैंकों में रखे काले धन को लेकर चौतरफ़ा गुहार तो है, पर दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटेन ने गुलाम भारत से जो उधार लिया उसे लौटाने की बात कभी किसी ने नहीं की.


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